
माना वो आवारा था
कहीं दूर चमकता जो एक सितारा था
कभी तुमने भी मुरादें उससे मांगी थीं
कभी दुआओं में उसे पुकारा था।
संग उसके कितनी शामें गुज़ारी थीं
उसके संग दिलकश हर नज़ारा था
वो लहरों के जैसी इठलाती थी
मैं खामोश दरिया का किनारा था।
फिर प्रेम की डोरी ऐसे टूट गई
मानो जिंदगी ही हमसे रूठ गई
फिर टूटे सपनों के बोझ तले
बड़ी मुश्किलों से ख़ुद को सम्हाला था।
धीर-धीरे वो फ़साना बन गया
जो किस्सा कभी हमारा था
माना वो आवारा था
कहीं दूर चमकता जो एक सितारा था।
आप कैसे लिख lete है इतनी अच्छी कविता… 😊😊
बस कोशिश करता हूं कुछ लिखनेे की आपको अच्छा लगा इसके लिए शुक्रिया
आपको पता है आप बहुत ही achha लिखते है…. ummid है इसी तरह आगे भी लिखते रहेंगे
बहुत शुक्रिया अंश जी